आदिकाल किसे कहते हैं?

 आदिकाल

आज हम इस पोस्ट में आदिकाल , आदिकालीन साहित्य , साहित्यकार और उनकी रचनाओं का अध्ययन करेंगे।

हिंदी साहित्य के आरंभिक काल को आदिकाल कहा जाता है।

अर्थात वह काल जब साहित्य रचना शुरू हुई थी।

आदिकाल का नामकरण

इस काल का नामकरण विवादास्पद है।

इस काल को जार्ज ग्रियर्सन ने चारण काल कहा है।

मिश्रबंधुओं ने प्रारंभिक काल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल व वीरगाथा काल

राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध-सामंत काल

रामकुमार वर्मा ने संधिकाल व चारण काल

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल कहा है।

इसे इस प्रकार याद करें-

आदिकाल का नामकरण-

चारण काल  -  जार्ज ग्रियर्सन 

प्रारंभिक काल - मिश्रबंधु

आदिकाल,वीरगाथा काल- रामचंद्र शुक्ल

आदिकाल - हजारी प्रसाद द्विवेदी

सिद्ध सामंत काल - राहुल सांकृत्यायन

संधिकाल, चारण काल - रामकुमार वर्मा

इस प्रकार इन लेखकों ने इस काल को अलग-अलग नाम दिए हैं।

आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृत्तियां मिलतीं हैं -

1. धार्मिकता - आदिकाल में धार्मिक रचनाएँ लिखीं गईं।

2. वीरगाथात्मकता - आदिकाल में वीरगाथा अर्थात राजाओं की वीरता की गाथाएँ लिखीं गईं।

3. श्रंगारिकता - इस काल में श्रंगार रस प्रधान काव्य रचना की गई।

आदिकाल में कवि राजाओं के आश्रय में रहते थे और राजाओं को प्रशन्न करने के लिए ऐसी काव्य रचना करते थे जिसमें उनकी वीरता का वर्णन हो। 

इसलिए इसे वीरगाथा काल कहा गया।

आदिकाल में प्रबंध और मुक्तक दोनों प्रकार की काव्य रचना हुई।

प्रबंध काव्य में रासो काव्य , कीर्तिलता , कीर्तिपताका आदि।

मुक्तक काव्य में खुसरो की पहेलियाँ , सिद्धों और नाथों की रचनाएँ , विद्यापति की पदावली आदि।

आदिकाल में दो काव्य शैलियाँ मिलतीं हैं- डिंगल और पिंगल

डिंगल शैली में कर्कश शब्दावलियों का प्रयोग होता है। कर्कश मतलब वे शब्द जो कानों को सुनने में अच्छे न लगें या कटु शब्द भी कह सकते हैं। कर्कश शब्दावलियों के कारण डिंगल शैली लोकप्रिय नहीं हो सकी।

पिंगल शैली में कर्णप्रिय शब्दावलियों का प्रयोग होता है। वह शब्दावली जो कानों को सुनने में प्रिय लगे। कर्णप्रिय शब्दावलियों के कारण पिंगल शैली लोकप्रिय होती चली गई और आगे चलकर यह ब्रजभाषा में परिवर्तित हो गई।

आदिकाल में आल्हा छंद बहुत प्रचलित था। यह 31 मात्राओं का छंद है। आल्हा छंद वीर रस का बहुत लोकप्रिय छंद था।

आदिकाल में दोहा , रासा , तोमर , नाराच , पद्धति , पञ्झटिका , अरिल्ल आदि छंदों का भी प्रयोग मिलता है।

अपभ्रंश भाषा में 15 मात्राओं का एक 'चउपई' छंद मिलता है हिंदी भाषा में उसी चउपई छंद में एक मात्रा और बढ़ाकर चौपाई का रूप देकर अपनाया है।

चौपाई 16 मात्राओं का छंद है।

दोहा के साथ चौपाई रखने की पद्धति कडवक कहलाती है। और इस पद्धति का प्रयोग भक्तिकाल में जायसी और तुलसीदास जी ने किया।

आदिकालीन साहित्य के तीन प्रमुख रूप हैं-

सिद्ध साहित्य- 

बौद्ध धर्म दो शाखाओं में विभक्त हो गया था हीनयान और महायान। महायान को वज्रयान भी कहते हैं। वज्रयानियों को ही सिद्ध कहा गया है। सिद्धों ने वज्रयान शाखा का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जनभाषा में लिखा गया वह सिद्ध साहित्य कहा जाता है।

सिद्धों की संख्या 84 मानी जाती है।

ये तांत्रिक क्रियाओं में आस्था रखते थे और मंत्र द्वारा सिद्धी प्राप्त करने के कारण इन्हें सिद्ध कहा गया।

राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है। ये सिद्ध अपने नाम के पीछे 'पा' जोड़ते थे। 

84 सिद्धों में सरहपा , सबरपा , कण्हपा , लुइपा , डोम्भिपा , कुक्कुरिपा , शान्तिपा , तन्तिपा , छत्रपा , मलिपा आदि।

सरहपा प्रथम सिद्ध हैं। इन्हें सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है। सिद्ध कवियों की रचनाएँ दो रूपों में मिलतीं हैं 'दोहा कोष' और 'चर्यापद'।

सिद्धों द्वारा रचित दोहों का संग्रह दोहा कोष और उनके द्वारा रचित पद 'चर्यापद' के नाम से प्रसिद्ध हैं।

सिद्ध साहित्य की भाषा को अपभ्रंश एवं हिंदी के संधि काल की भाषा मानी जाती है इसलिए इनकी भाषा को संधा या संध्या नाम दिया जाता है।

नाथ साहित्य - 

10वीं सदी में शैवधर्म एक नये रूप में आरंभ हुआ जिसे 'योगिनी कौल मार्ग' , 'नाथ पंथ' या 'हठयोग' कहा गया।

इसका उदय बौद्ध-सिद्धों की वाममार्गी, भोगप्रधान योगधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।

अनुश्रुति के अनुसार 9 नाथ हैं - आदिनाथ (शिव), जलंधर नाथ , मछंदर नाथ , गोरखनाथ , गैनीनाथ , निवृतिनाथ  आदि।

नाथ साहित्य के प्रवर्तक गोरखनाथ थे।

गोरखनाथ सिद्ध मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य थे।

गोरखनाथ का समय -

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार 845 ई माना जाता है।

डाॅ हजारी प्रसाद द्विवेदी 9वीं सदी का , आचार्य रामचंद्र शुक्ल 13वीं सदी का , और डाॅ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल उन्हें 11वीं , सदी का मानते हैं।

गोरखनाथ द्वारा रचित 40 रचनाएँ मानी जाती है पर पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने 14 रचनाएँ ही उनके द्वारा रचित मानी हैं।

गोरखनाथ ने हठयोग साधना का उपदेश दिया था। हठयोगियों के 'सिद्धसिद्धान्त पद्धति' ग्रंथ के अनुसार हठ में ह का अर्थ है - सूर्य और ठीक का अर्थ है - चंद्र। इन दोनों अर्थात सूर्य और चंद्र के योग को ही हठयोग कहते हैं।

हठयोग में विश्वास करने वाला हठयोगी साधना द्वारा शरीर एवं मन को शुद्ध करके शून्य में समाधि लगाता था।

गोरखनाथ ने ही षठचक्रों वाला योगमार्ग हिंदी साहित्य में चलाया था।

रासो साहित्य-

रासो काव्य धार्मिक दृष्टि से प्रधान थे।

रासो ग्रंथ वीरगाथापरक थे।

रासो काव्य के रचयिता राजाओं के चरित्र का वर्णन करते थे, और उनकी प्रशंसा और वीरता का वर्णन करते थे।

रासो काव्य वीर रस प्रधान है।

रासो काव्य परंपरा के कवि राजाओं के आश्रय में रहते थे इसलिए उनका उद्देश्य राजाओं के शौर्य और ऐश्वर्य को बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करना था।

रासो शब्द की व्युत्पत्ति - 

रासो शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं।

रासो शब्द के सन्दर्भ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की मान्यता वैज्ञानिक लगती है। उन्होंने 'रासक' शब्द से रासो शब्द को व्युत्पन्न माना है। 

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'रस' शब्द से रासो की उत्पत्ति को मानते हैं।

चंद्रबरदाई भी रासो/रासउ या रासक शब्द को रसों से ही उत्पन्न मानते हैं।

रासो काव्य और उनके रचनाकार-

पृथ्वीराज रासो - चन्द्रबरदाई

(आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार हिंदी का प्रथम महाकाव्य)

हम्मीर रासो - शार्ड़ग्धर

खुमाण रासो - दलपति विजय

परमाल रासो - जगनिक 

विजयपाल रासो - नल्लसिंह भाट

बीसलदेव रासो - नरपति नाल्ह

संदेश रासक - अब्दुर रहमान

मुंज रासो - अज्ञात

जैन साहित्य-

जिस तरह हिंदी के पूर्वी क्षेत्रों में सिद्धों ने बौद्ध धर्म का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया उसी तरह पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने भी अपने मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया।

जैन साहित्य की रचनाएँ आचार, रास, फागु चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलतीं हैं।

आचार शैली में घटनाओं के स्थान पर उपदेशात्मकता को प्रधानता दी जाती है।

फागु व चरित काव्य शैली सामान्यता के लिए प्रसिद्ध है।

रास शब्द संस्कृत साहित्य में क्रीड़ा और नृत्य से संबंधित था।

जैन साधुओं ने 'रास' को एक प्रभावशाली रचना शैली का रूप दिया।

जैन तीर्थंकरों के जीवन चरित और वैष्णव अवतारों की कथाएँ रास नाम से ही पद्यबद्ध की गईं थीं जो जैन आदर्शों पर आधारित थीं।

चौदहवीं शताब्दी तक इस पद्धति का प्रचार रहा इसलिए 'रास' जैन साहित्य के सबसे लोकप्रिय ग्रंथ बन गए।

वीरगाथाओं में रासो को ही रास कहा गया है। लेकिन वीरगाथाओं की विषय भूमि जैन रास ग्रंथों से अलग थी।

आदिकालीन जैन साहित्य में 'भरतेश्वर बाहुबली रास' को जैन साहित्य की रास परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। इसकी रचना 1184 ई में शालिभद्र सूरि ने की थी।

आदिकालीन जैन साहित्यिक रचनाएँ-

धार्मिक व उपदेशमूलक रासो काव्य -

श्रावकाचार - देवसेन

भरतेश्वर बाहुबली रास - शालिभद्र सूरि

चन्दनबाला रास - आसगू

स्थूलीभद्र रास -जिनधर्म सूरी

रेवन्तगिरी रास - विजय सेन

नेमीनाथ रास - सुमतिगण

उपदेश रसायन रास - जिन दत्त सूरी

आदिकालीन रचना एवं रचनाकार -

पउम चरिउ, रिट्ठणेमि चरिउ - स्वयंभू

दोहाकोश - सरहपा

चर्या पद - शबरपा

कण्हपा गीतिका, दोहा कोश - कण्हपा

सबदी, पद, प्राण संकली, सिष्या दासन - गोरखनाथ (नाथ पंथ के प्रवर्तक)

सिद्ध हेमचंद्र, शब्दानुशासन - हेमचंद्र

पदावली(मैथिली में),

कीर्तिलता व कीर्तिपताका(अवहट्ट में),

लिखनावली (संस्कृत में) - विद्यापति

ढोला मारू रा दूहा - कल्लोल कवि

जयमयंक जस चंद्रिका - मधुकर

जयचंद्र प्रकाश - भट्ट केदार



मुख्य तथ्य-

विद्यापति ने कीर्तिलता व कीर्तिपताका की रचना अवहट्ट भाषा में की और पदावली की रचना मैथिली भाषा में की।

पदावली की रचना मैथिली भाषा में करने के कारण ही विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं।

पृथ्वीराज रासो (चन्द्रबरदाई) -

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है।

 यह रासो काव्य परंपरा का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। यह आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह एक प्रबंध काव्य है। यह श्रंगार और वीर रस प्रधान काव्य है। इस काव्य ग्रंथ की भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है और शैली पिंगल है।

पृथ्वीराज रासो में चौहान शासक पृथ्वीराज के अनेक युद्धों और विवाहों का सजीव चित्रण हुआ है।

पृथ्वीराज रासो एक अर्धप्रमाणिक रचना है।

परमाल रासो (जगनिक) -

जगनिक महोबा के राजा परमार्दिदेव के आश्रय में रहते थे। जगनिक ने आल्हा और ऊदल दो सरदारों की वीरतापूर्ण लड़ाइयों का वर्णन किया है।

इसी आधार पर इसका रचनाकाल 13वीं शताब्दी माना जाता है।

यह वीर रस प्रधान रचना है। आज भी इसे ग्रामीण क्षेत्रों में गाया जाता है।

यह मूल रूप से उपलब्ध नहीं है लेकिन इसका एक अंश उपलब्ध है जिसे 'आल्हा खंड' कहा जाता है। इसका छंद आल्हा या वीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यह भी अर्धप्रमाणिक है।

संदेश रासक (अब्दुर रहमान)-

यह एक विरह काव्य है।

  • विजयपाल रासो और हम्मीर रासो अपभ्रंश की रचनाएँ हैं।
  • सरहपाद को हिंदी का प्रथम कवि माना जाता है । सरहपाद 84 सिद्धों में से एक हैं।

अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने फारसी में ऐतिहासिक साहित्यिक पुस्तकें लिखीं।

ब्रजभाषा में गीतों और कव्वालियों की रचना की।

खड़ी बोली में पहेलियाँ और मुकरियाँ लिखीं।

संगीत के क्षेत्र में उन्हें कव्वाली, तराना गायन शैली, और सितार वाद्य यंत्र का जन्मदाता माना जाता है।




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