हिंदी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
आज हम हिंदी साहित्य के इतिहास के बारे में अध्ययन करेंगे। हिंदी साहित्य का विकास कैसे हुआ ?
हिंदी साहित्येतिहास के विभिन्न काल और उनका नामकरण।
तो चलिए शुरू करते हैं -
हिंदी साहित्य का इतिहास दर्शन -
इतिहास के समानार्थक शब्द हिस्ट्री का प्रयोग यूनानी विद्वान हेरोडोटस ने किया।
इन्होंने इतिहास के चार प्रमुख लक्षण निर्धारित करते हुए बताया कि -
1. इतिहास एक वैज्ञानिक विधा है अर्थात इसकी पद्धति आलोचनात्मक होती है।
2. यह मानव जाति से संबंधित होता है इसलिए यह एक मानवीय विधा है।
3. यह एक तर्कसंगत विधा है क्योंकि इसके तथ्य और निष्कर्ष प्रमाणों पर आधारित होते हैं।
3. यह शिक्षाप्रद विधा है क्योंकि यह अतीत के आलोक में भविष्य को प्रकाशित करता है।
इतिहासकार केवल घटनाओं का निश्चय करके नहीं चलता बल्कि उन घटनाओं की आंतरिक प्रवृत्तियों को भी उजागर करता है।
साहित्य के विकास के प्रमुख बिंदु -
साहित्य के विकास के लिए निम्नलिखित पाँच बिंदु स्वीकार करना आवश्यक है -
प्राकृतिक सृजन शक्ति -
साहित्य के विकास में सर्वाधिक योगदान प्राकृतिक सृजन शक्ति का होता है। इस विशेष शक्ति को हम प्रतिभा , सृजन क्षमता , कल्पना शक्ति , सहानुभूति आदि नामों से समझ सकते हैं।
साहित्यकार में इस एक विशेष शक्ति का अस्तित्व अवश्य ही होता है तभी वह साहित्य का सृजन करता है।
यह शक्ति व्यक्तियों को प्राकृतिक रूप से प्राप्त होती है।
परम्परा -
साहित्य के विकास की प्रक्रिया का दूसरा मूल तत्व परम्परा है।
साहित्यकार अपनी रुचि के आधार पर किसी एक परम्परा को अवश्य ही अपनाता है।
साहित्यकार किसी भी परम्परा को अपना सकता है चाहे वह किसी भी युग की हो अथवा किसी भी देश की।
वातावरण -
विकास प्रक्रिया का तीसरा चरण वातावरण है।
साहित्यकार अपने युग के वातावरण , पाठकों या आश्रयदाताओं की रुचि , प्रवृत्तियों , और विभिन्न प्रेरणा स्रोतों से प्रभावित होकर ही साहित्य का सृजन करता है।
द्वन्द्व -
विकास प्रक्रिया का चौथा चरण द्वन्द्व है।
द्वन्द्व दो वस्तुओं के परस्पर आकर्षण और प्रतिकर्षण के कारण होता है।
द्वन्द्व भौतिक , सामाजिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक , या मानसिक किसी भी प्रकार का हो सकता है।
द्वन्द्व जितना तेज होगा साहित्य के विकास की परम्परा उतनी ही तीव्र होगी।
सन्तुलन -
साहित्य के विकास का पाँचवाँ चरण सन्तुलन या सामंजस्य है।
जब लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है तो द्वन्द्व अपने आप समाप्त हो जाता है और इस स्थिति को ही संतुलन नाम दिया गया है।
हिंदी साहित्य के विकास की लेखन पद्धति -
वर्णानुक्रम पद्धति - इस पद्धति में लेखकों एवं कवियों का परिचय उनके नामों के पहले वर्ण के क्रम में दिया जाता है।
जैसे कबीर और केशव। दोनों कवियों का नाम क अक्षर से तो है पर कालक्रम अलग है। कबीर का कालक्रम भक्तिकाल है जबकि केशव का कालक्रम रीतिकाल है।
डाॅ. शिवसिंह सेंगर और गार्सा दा तासी ने इस पद्धति का प्रयोग किया है।
कालानुक्रमी पद्धति - इस पद्धति में रचनाकार की जन्मतिथि को आधार बनाकर इतिहास ग्रंथ में उनका क्रम निर्धारित किया जाता है।
जार्ज ग्रियर्सन व मिश्रबंधुओं ने इस पद्धति का प्रयोग किया है।
वैज्ञानिक पद्धति - इस पद्धति में इतिहास लेखक पूर्णतः तटस्थ रहकर तथ्यों का संकलन करता है।
तथ्यों को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित करके प्रस्तुत करता है।
डॉ गणपतिचन्द्र गुप्त ने इस पद्धति का प्रयोग किया है।
विधेयवादी पद्धति - यह पद्धति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ।
इस पद्धति का जन्मदाता तेन था। तेन महोदय ने इस पद्धति को तीन शब्दों में बाँटा है -
1. जाति
2. वातावरण
3. क्षण
इस पद्धति में इतिहास लिखने की परम्परा की शुरुआत आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने की। साहित्य के इतिहास को परिभाषित करते हुए शुक्ल जी लिखते हैं कि -
"प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है।....आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य बिठाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है।"
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का वास्तविक सूत्रपात 19 वीं शताब्दी से माना जाता है।
मध्यकाल में भी कुछ रचनाएँ मिलतीं हैं जैसे - चौरासी वैष्णवन की वार्ता , दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता , भक्तमाल इत्यादि।
परंतु इनमें कालक्रम के अनुसार वर्णन नहीं मिलता है।
गार्सा दा तासी-
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा की शुरुआत गार्सा दा तासी ने की जो एक फ्रेंच विद्वान थे।
इन्होंने ' इस्त्वार द ला लिटरेत्यूर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी ' इतिहास ग्रंथ की रचना की।
यह दो भागों में विभक्त है ।
प्रथम भाग का प्रकाशन 1839 ई और द्वितीय भाग का प्रकाशन 1847 ई में हुआ।
शिवसिंह सेंगर-
इतिहास लेखन परम्परा की दूसरी रचना शिवसिंह सरोज है जिसकी रचना शिवसिंह सेंगर ने की।
इसमें लगभग एक हजार छोटे-बड़े कवियों की रचनाएँ व जीवन परिचय दिया है परंतु उनमें अधिकांश अविश्वसनीय हैं।
जार्ज ग्रियर्सन-
'द माॅर्डन वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान' जार्ज ग्रियर्सन की कृति है जिसका प्रकाशन एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल में हुआ।
अनेक विद्वानों ने इसे साहित्य का प्रथम इतिहास ग्रंथ माना है। इन्होंने अपने ग्रंथ में केवल हिंदी कवियों को ही शामिल किया है।
ग्रियर्सन ने गार्सा दा तासी व शिवसिंह सेंगर द्वारा एकत्र की गई सामग्री का उपयोग करते हुए अपने ग्रंथ को और अधिक प्रमाणित करने का प्रयास किया है।
मिश्रबंधु-
मिश्रबंधुओं की कृति है 'मिश्रबंधु विनोद' । यह एक विशाल ग्रंथ है जिसमें पाँच हजार कवियों के विषय में विवरण दिया गया है और रचनाकाल आठ खंडों में विभाजित है।
रामचंद्र शुक्ल-
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की कृति है ' साहित्य का इतिहास'।
रामचंद्र शुक्ल जी ने मिश्रबंधुओं की रचना से सामग्री जुटाकर रीतिकाल के कवियों के परिचय लिखे।
- आदिकाल (वीरगाथाकाल)
- पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल)
- उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल)
- आधुनिक काल (गद्यकाल)
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