भक्ति काल क्या है ?निर्गुण भक्ति काव्य धारा की महत्वपूर्ण जानकारी
भक्तिकाल-
पूर्व मध्य काल / भक्तिकाल
भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाता है।
सर्वप्रथम जार्ज ग्रियर्सन ने भक्तिकाल के उदय के बारे में अपना मत व्यक्त किया । वे भक्तिकाल को ईसायत की देन मानते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार-
देश में मुसलमानों का शासन था इस कारण जो हिंदू जनता थी उनके मन से उत्साह लगभग समाप्त हो रहा था। हिंदुओं के सामने ही उनके मंदिर गिराए जा रहे थे और उनके देवताओं की मूर्तियाँ तोड़ी जा रही थी और वह कुछ नहीं कर सकते थे।
ऐसी स्थिति में उनके पास ईश्वर की शरण में जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था । इसलिए वह ईश्वर की उपासना करने लगे।
भक्ति आन्दोलन की शुरुआत दक्षिण भारत में हुई थी और दक्षिण से उत्तर भारत की ओर आ रही थी। जनता राजनीतिक परिवर्तन के कारण निराश थी इसलिए उनके हृदय में इस भक्ति आन्दोलन को फैलने का पूरा स्थान मिला।
दक्षिण भारत में भक्ति आन्दोलन का श्रेय आलावार भक्तों को जाता है। उसके बाद वैष्णव आचार्य - रामानुजाचार्य , निम्बार्काचार्य , मध्वाचार्य , विष्णु स्वामी आदि भक्तों ने भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया।
दक्षिण भारत में भक्ति की बहुत उन्नति हुई। 13वीं सदी में भक्ति की लहर दक्षिण से महाराष्ट्र पहुँचती है और उसके बाद उत्तर भारत ।
उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के सूत्रपात का श्रेय रामानंद को है (भक्ति द्राविड़ उपजी, लाए रामानंद) उत्तर भारत में रामानंद ने भक्ति को जन-जन तक पहुँचाकर इसे और अधिक लोकप्रिय बनाया।
भक्ति आन्दोलन का स्वरूप -
भक्ति आन्दोलन का स्वरूप देशव्यापी हो गया था।
दक्षिण में - आलावार नायनार व वैष्णव आचार्य
महाराष्ट्र में - वारकरी संप्रदाय - ज्ञानेश्वर , नामदेव , एकनाथ , तुकाराम ।
उत्तर भारत में - रामानंद , बल्लभ आचार्य
बंगाल में - चैतन्य
असम में - शंकर देव
उड़ीसा में - पंचसखा ( बलरामदास , अनंतदास , यशोबंतदास , जगन्नाथदास , अच्युतानंद )
इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि भक्ति आन्दोलन पूरे देश में फैल गया था।
भक्ति काल में काव्य को दो धाराओं में बाँटा गया है-
- निर्गुण भक्ति काव्य धारा
- सगुण भक्ति काव्य धारा
निर्गुण भक्ति काव्य धारा की दो शाखाएँ हैं-
- ज्ञानाश्रयी शाखा/ज्ञानमार्गी शाखा/संत काव्य
- प्रेमाश्रयी शाखा/प्रेममार्गी शाखा/सूफी काव्य
ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीर दास जी हैं।
प्रेमाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि जायसी हैं।
सगुण भक्ति काव्य धारा की दो शाखाएँ हैं -
- कृष्ण भक्ति शाखा
- राम भक्ति शाखा
रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास जी हैं।
कृष्णभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि सूरदास जी हैं।
निर्गुण भक्ति-
ब्रह्म के दो स्वरूप हैं निर्गुण और सगुण। निर्गुण भक्ति में निराकार ब्रह्म की उपासना की जाती है। निर्गुण भक्ति में गुरू को विशेष महत्व दिया गया है।
निर्गुण भक्ति ज्ञानमार्गी है।
निर्गुण भक्ति में मानसिक भक्ति पर बल दिया जाता है क्योंकि मानसिक जप आडंबर रहित होता है।
निर्गुण भक्ति काव्य धारा की विशेषताएँ-
1. निर्गुण और निराकार ईश्वर की उपासना।
2. लौकिक प्रेम द्वारा अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति।
3. धार्मिक रूढ़ियों व सामाजिक कुरीतियों का विरोध।
4. जाति प्रथा का विरोध एवं हिन्दु-मुस्लिम एकता का समर्थन।
5. रहस्यवाद का प्रभाव।
6. लौकिक भाषा का प्रयोग।
संत कवियों का उद्देश्य था समाज को सुधारना। कविता तो माध्यम थी जिसके द्वारा वह अपनी बात समाज के सामने रखते थे।
संत कवि निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते थे और निर्गुण ब्रह्म का कोई रूप गुण या आकार नहीं होता है।
निर्गुण ब्रह्म अनुभूति का विषय है जिसकी अभिव्यक्ति संभव नहीं है। अर्थात निर्गुण ब्रह्म को अनुभव किया जा सकता है उनके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है।
सभी संत निरक्षर थे मात्र सुंदरदास साक्षर थे। उन्हें काव्यगत रूढ़ियों की जानकारी थी।
संतों और कवियों की भाषा अनपढ़ प्रकृति की थी।
जबकि सुंदरदास की भाषा पंचमेल खिचड़ी है जिसमें भोजपुरी, अवधि, राजस्थानी, पंजाबी और बांग्ला के तत्व भी शामिल हैं।
संतों की रचना मुक्तक थी।
ज्ञानमार्गी शाखा/ संत काव्य
संत काव्य का सीधा अर्थ तो होता है संतों द्वारा रचा गया काव्य। लेकिन जब हिंदी में 'संत काव्य' कहा जाता है तो उसका अर्थ हो जाता है निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गी कवियों द्वारा रचा गया काव्य।
ज्ञानमार्गी शाखा के कवियों के अनुसार ज्ञान के द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
प्रमुख संत कवि-
कबीर - कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन थे।
कबीर की रचनाओं का संकलन 'बीजक' में है । बीजक का संकलन धर्मदास ने किया है।
बीजक के तीन भाग हैं - साखी, सबद, रमैनी।
बाबू श्यामसुंदर दास ने 'कबीर ग्रंथावाली' में कबीर की रचनाओं का संकलन किया है।
ये रामानंद के शिष्य थे।
कबीर दास जी निरक्षर थे पर बड़े बड़े विद्वानों के कथन को कागज की लेखी कहकर ठुकरा देते थे।
इन्होंने अपनी निरक्षरता को स्वयं स्वीकार किया है-
'मसि कागद छुयौ नहीं कलम गह्यौ नहिं हाथ।'
कबीर दास जी के नाम पर हिंदी में लगभग 65 रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनमें से 43 प्रकाशित सो चुकीं हैं।
कबीर भक्त थे और भक्ति के प्रसार के लिए उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों , अंधविश्वास, मूर्तिपूजा, हिंसा, जाति-पाँति, छुआछूत आदि का विरोध किया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी कहा है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' कहा है।
कबीर की उलटबाँसियों में प्रमुख रस अद्भुत रस है।
रैदास - रैदास का जन्म 1398ई में काशी में हुआ।
ये रामानंद के 12 शिष्यों में से एक थे।
रैदास जाति के चमार थे।
इनके जीवनकाल की अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
मीराबाई ने अनेक पदों में उन्हें गुरू के रूप में याद किया है - 'गुरू मिल्या रैदास जी दीन्ही ज्ञान की गुटकी'
रैदास के 40 पद गुरू ग्रंथ साहिब में संकलित हैं।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ-
अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी जाकी अंग अंग बास समानी।
सब घट अन्तरि रमसि निरन्तर मैं देखन नहिं जाना।
गुरू नानक देव - गुरूनानक देव जी सिख धर्म के प्रवर्तक और सिखों के प्रथम गुरू हैं।
इनका जन्म 1469ई में पंजाब के ननकाना साहिब के तलवण्डी गाँव में हुआ।
इनके अनेक पदों की रचना गुरू ग्रंथ साहिब में संकलित है।
जपुजी, रहिरास, आसा दी वार, सोहिला उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
मलूकदास - प्रसिद्ध संत कवि मलूकदास का जन्म 1574ई में इलाहाबाद जिले के कड़ा नामक गाँव में हुआ।
इनकी रचनाएँ - ज्ञानबोध, रतनखान,भक्तिविवेक, भक्त बच्छावली, भक्त विरुदावली, पुरुष विलास, गुरूप्रताप, अलखबानी, अवतार लीला, बारहखड़ी, ब्रजलीला, ध्रुवचरित।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ-
अजगर करै न चाकरी,पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गए,सबके दाता राम।।
कहत मलूक जो बिन सर खेवै,सो यह रूप बखानै।
या नैया के अजब कथा,कोई बिरला केवट जानै।।
कहत मलूका निरगुन के गुन,कोई बड़भागी गावै।
क्या गिरही औ क्या बैरागी,जेहि हरि देय सो पावै।।
दादूदयाल- इनका जन्म परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार 1544ई और रामकुमार वर्मा के अनुसार 1601ई में हुआ।
ये समाज सुधारक और रहस्यवादी कवि थे।
रज्जब, सुंदरदास,प्रयागदास,जनगोपाल और जगजीवन इनके शिष्य थे।
उनक रचनाओं को उनके शिष्यों संतदास व जगन्नाथ दास ने 'हरडेवाणी' से संकलित किया है।
उनकी रचनाओं का संकलन परशुराम चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित 'दादूदयाल' में है।
इनकी विचारधारा कबीर से मिलती है।
इनकी भाषा मुख्यतः राजस्थानी है लेकिन गुजराती और पंजाबी में इनके पद मिलते हैं।
कौन बिधि पाइए रे, मीत हमारा सोई।
पास पीय परदेस है रे,जब लग प्रगटई नाँहिं।
बिन देखे दुख पाइये रे,यह सालई मन माहिं।
जब लग नैन न देखिए रे,परगट मिलई न आई।
एक सेज संग रहई रे,यह दुख सहा न जाई।
सुंदरदास - इनका जन्म जयपुर की प्राचीन राजधानी धोंसा में 1596ई में हुआ।
ये दादू दयाल के शिष्य थे। ये प्रतिभाशाली कवि व साधक थे।
इन्होंने कई भाषाओं संस्कृत, पंजाबी, गुजराती, मारवाड़ी, फारसी आदि का ज्ञान प्राप्त किया।
इन्होंने 42 ग्रंथों की रचना की थी जिनमें ज्ञान समुद्र और सुंदरविलास सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।
इनकी रचनाओं का संकलन पुरोहित हरिनारायण शर्मा ने 'सुंदर ग्रंथावली' में किया है।
इनकी रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं।
रज्जबदास - इनका जन्म 1567ई में सांगानेर के प्रसिद्ध पठान परिवार में हुआ।
दादू के शिष्यों में इनका स्थान उच्च था। सुंदर दास की तरह ये भी सुशिक्षित थे।
इनकी कृतियों में 'बानी' और 'सर्वांगी' महत्वपूर्ण हैं।
बानी में 5000 छंद संग्रहीत हैं और सर्वांगी में अनेक संतों की रचनाएँ संकलित हैं।
धर्मदास
चरनदास
सहजोबाई
नामदेव
प्रेममार्गी शाखा या सूफी काव्य धारा -
प्रेमाख्यानक काव्य का अर्थ है 'प्रेम कथा काव्य'।
प्रेमाख्यानक काव्य को प्रेमाख्यान काव्य, प्रेमकथानक काव्य, प्रेम काव्य, प्रेममार्गी काव्य आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
इन कविताओं में मुख्यतः प्रेम का चित्रण रहता है लेकिन यह प्रेम विशेष प्रकार का होता है जिसमें साहस, शौर्य, संघर्ष, सौन्दर्य और कल्पना का भी मिश्रण होता है।
आचार्य भामह और दण्डी के अनुसार इन कविताओं में कन्या के अपहरण , युद्ध , विरह एवं प्रेम की प्रमुखता होती है।
प्रेममार्गी कवियों के अनुसार प्रेम के द्वारा ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
सूफी शब्द की उत्पत्ति-
सूफी शब्द 'सूफ' से बना है जिसका अर्थ ऊन होता है। सूफी लोग प्रायः सफेद ऊन से बना वस्त्र पहनते थे क्योंकि यह पवित्र होता था इसी कारण इन्हें सूफी कहा जाने लगा।
सूफी दर्शन का भारत में प्रचार-
भारत में सूफी मत का आगमन 10वीं शताब्दी में हुआ। जिसका श्रेय ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को जाता है।
आईने-अकबरी में कुल 14 सूफी संप्रदायों का उल्लेख मिलता है जिनमें कुछ प्रमुख हैं-
1.कादरी संप्रदाय - प्रचारक अब्दुल कादिर
2. चिश्ती संप्रदाय - ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती
3. सुरहावर्दी संप्रदाय - प्रचारक बलाउद्दीन जकरिया
4. नक्शबंदी संप्रदाय - प्रचारक अहमद फारुखी
सूफी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ-
सूफी काव्य में अधिकांश कवि मुस्लिम हैं।
अधिकांश कवियों ने मनसबी शैली का प्रयोग किया है।
सूफी काव्य स्वच्छंद प्रेम और साहसिक शौर्य प्रेम कथाओं के अन्तर्गत आते हैं।
अधिकांश प्रेमाख्यानकों का नाम नायिका के नाम पर है
जैसे - मधुमालती , चित्रावती, पद्मावत, कनकावती, रूपमंजरी आदि।
सभी प्रेमाख्यानों में कथानक रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है।
श्रंगार रस और कहीं-कहीं शांत रस की प्रधानता है।
अवधि भाषा का प्रयोग और दोहा-चौपाई शैली का प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा भी देखने को मिलती है।
इस परंपरा के काव्य प्रबंधात्मक शैली में रचे गए हैं।
प्रमुख सूफी रचनाएँ और रचनाकार-
हंसावली - असाइत
चन्दायन - मुल्लादाऊद
मृगावति - कुतुबन
माधवानल कामकन्दला - आलम
पद्मावत - मलिक मोहम्मद जायसी
मधुमालती - मंझन
रूपमंजरी - नन्ददास
छिताई वार्ता - नारायण दास
चित्रावती - उस्मान
रसरतन - पुहकर
ज्ञानदीप - शेखनबी
हंसा जवाहिर - कासिमशाह
अनुराग बाँसुरी - नूर मोहम्मद
इन्द्रावती - नूर मोहम्मद
ढोला मारूरा दूहा - कुशललाभ
सत्यवती कथा - ईश्वरदास
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