द्विवेदी युग द्विवेदी युग की विशेषताएं

द्विवेदी युग - 

आज की पोस्ट में हम द्विवेदी युग की विस्तार से चर्चा करेंगे। द्विवेदी युग की समय-सीमा और द्विवेदी युग की विशेषताओं और इस युग के कवि और उनकी रचनाओं का अध्ययन करेंगे।

द्विवेदी युग ( 1900ईo - 1920ईo) -

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर इस युग का नाम द्विवेदी युग रखा गया है।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इस कालखण्ड या इस युग के पथ प्रदर्शक, विचारक और महान साहित्यकार थे।

इन्होंने हिंदी के कवियों और लेखकों की एक पीढ़ी का निर्माण किया।

इन्होंने हिंदी के कोश का निर्माण करने की पहल की।

इन्होंने हिंदी व्याकरण को स्थिर किया और खड़ी बोली को परिष्कृत किया। 

खड़ी बोली को पद्य की भाषा बनाने का श्रेय भी बहुत हद तक महावीर प्रसाद द्विवेदी को ही है।

द्विवेदी युग को 'जागरण सुधार काल' भी कहा जाता है।

इस युग के कवियों ने न केवल समस्याओं को उठाया बल्कि उनका समाधान भी बताया। गद्य लेखन व संपादन में भी द्विवेदी जी को विशेष सफलता मिली।

इस युग के कवियों के दो वर्ग थे -

  1. द्विवेदी मंडल के कवि
  2. द्विवेदी मंडल के बाहर के कवि

1.द्विवेदी मंडल के कवि -

 इस युग में अधिकांश कवि थे जो द्विवेदी जी के दिशा-निर्देश और अनुशासन में काव्य रचना करते थे। द्विवेदी मंडल के कवियों की काव्य धारा को 'अनुशासन की धारा' कहा जाता है।

द्विवेदी मंडल के कवि और उनकी रचनाएं-

महावीर प्रसाद द्विवेदी - काव्य मंजूषा, सुमन, कान्यकुब्ज, अबला- विलाप

मैथिलीशरण गुप्त - रंग में भंग, जयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, झंकार, साकेत, यशोधरा, द्वापर, जय भारत, विष्णु प्रिया

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध - प्रियप्रवास, पद्म प्रसून, चुभते चौपदे, चोखे चौपदे, बोलचाल, रस कलस, वैदेही वनवास

सियारामशरण गुप्त - मौर्य विजय, अनाथ, दूर्वादल, विषाद, बापू, उन्मुक्त, दैनिकी, नकुल, गीत संवाद

नाथूराम शर्मा शंकर - अनुराग रत्न, शंकर सरोज, गर्भरण्डा रहस्य, शंकर सर्वस्व

2.द्विवेदी मंडल के बाहर के कवि - 

कुछ कवि ऐसे थे जो द्विवेदी जी के दिशा निर्देश और अनुशासन में नहीं थे। ये कवि स्वतंत्र रूप से काव्य रचना करते थे। द्विवेदी मंडल के बाहर के कवियों की धारा को ' स्वचछंदता की धारा ' कहा जाता है। स्वच्छंदतावादी काव्य की यही धारा आगे चलकर छायावाद में गहरी हो जाती है।

द्विवेदी मंडल के बाहर ( स्वचछंदता की धारा ) के कवियों की विशेषताएँ -

  • प्रकृति का पर्यवेक्षण
  • प्रकृति की स्वचछंद भंगिमाओं का चित्रण
  • देश भक्ति
  • कथा गीत का प्रयोग
  • काव्य भाषा के लिए खड़ी बोली
  • द्विवेदी युग की रचनाएं और उनके रचनाकार


द्विवेदी मंडल के बाहर के कवि और उनकी रचनाएं-

श्रीधर पाठक - वनाष्टक, काश्मीर सुषमा, देहरादून, भारत गीत, जॉर्ज वंदना (कविता), बाल विधवा (कविता )

मुकुटधार पाण्डेय - पूजा फूल, कानन कुसुम

लोचन प्रसाद पांडे - प्रवासी, मेवाड़ गाथाा, महानदी, पद्य पुष्पांजलि

रामनरेश त्रिपाठी - मिलन, पथिक, स्वप्न, मानसी

जगन्नाथ दास रत्नाकर- उद्धवशतक, गंगावतरण, श्रंगार लहरी, हिण्डोला, हम्मीर हठ दीप प्रकाश

राय देवी प्रसाद पूर्ण - स्वदेशी कुंडल, मृत्युंजय, राम - रावण विरोध, वसंत वियोग

रामचरित उपाध्याय - राष्ट्र भारती, देवदूत, देव सभा, विचित्र विवाह, 

रामचरित चिंतामणि (प्रबंध काव्य)

गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' - कृषक-क्रंदन, प्रेम पचीसी, राष्ट्रीय वीणा, त्रिशूल तरंग, करुणा कादंबनी

बालमुकुंद गुप्त - स्फुट कविता

लाला भगवानदीन 'दीन' - वीर क्षत्राणी, वीर बालक, वीर पंचरत्न, नवीन बीन

द्विवेदी युग की कृतियों में दो महाकाव्य साकेत (मैथिलीशरण गुप्त) व प्रियप्रवास (अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध) प्रमुख हैं। प्रियप्रवास आधुनिक काल में रचित हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है।

काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली की प्रतिष्ठा -

इस युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि है खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करना। इसका श्रेय महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को जाता है ।

भारतेंदु युग में ब्रज भाषा में काव्य रचना होती थी परंतु द्विवेदी युग में खड़ी बोली में काव्य रचनाएं लिखी जाने लगी। हालांकि कुछ रचनाएं ब्रज भाषा में भी हैं। 

ब्रज भाषा की जगह है खड़ी बोली को स्थापित करने का कार्य द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से किया दिवेदी जी का कहना था कि गद्य और पद्य दोनों की भाषा एक ही होनी चाहिए। इनकी मान्यता थी कि खड़ी बोली काव्य हेतु पूर्णत: उपयुक्त है।

उपाध्याय जी की प्रियप्रवास और वैदेही वनवास खड़ी बोली की प्रसिद्ध रचनाएं हैं।

मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित भारत-भारती खड़ी बोली का काव्य ग्रंथ है। यह अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ है। डॉ नगेंद्र के अनुसार भारत भारती की लोकप्रियता खड़ी बोली की विजय पताका सिद्ध हुई।

द्विवेदी युगीन काव्य प्रवृत्तियां-

देश प्रेम की भावना -द्विवेदी युगीन काव्य ने जनमानस के बीच राष्ट्रप्रेम की लहर चलाई।

सामाजिक समस्याओं का चित्रण- यह युग सुधारवादी युग भी कहलाता है। इस युग के कवियों ने सामाजिक समस्याओं जैसे - दहेज प्रथा, नारी उत्पीड़न, छुआछूत, बाल विवाह आदि को अपनी कविता का विषय बनाया।

नैतिकता एवं आशीर्वाद - द्विवेदी युगीन काव्य आदर्शवादी एवं नीतिपरक है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी नैतिकता एवं आदर्श के प्रबल पक्षधर थे।

सभी काव्य रूपों का प्रयोग - द्विवेदी युग में लगभग सभी काव्य रूपों का प्रयोग हुआ। प्रबंध, मुक्तक, प्रगीत सभी काव्य रूपों में रचना हुई।

 द्विवेदी युग में सभी कवि मुक्तक रचना की ओर प्रवृत्त हुए।

भाषा परिवर्तन - इस युग में काव्य की मुख्य भाषा खड़ी बोली रही।

छंद विविधता - इस युग में छंदों में विविधता स्पष्ट दिखाई देती है। इस युग के कवि दोहा, कविता या सवैया तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि रोला, छप्पय, कुण्डलियां, सार, गीतिका, हरिगीतिका, लावनी, वीर आदि छंद भी प्रयुक्त हुए।


महत्वपूर्ण तथ्य -

प्रिय प्रवास की रचना हरिऔध जी ने 1914 ईस्वी में की। यह हिंदी का प्रथम महाकाव्य है। प्रियप्रवास महाकाव्य कुल 17 वर्गों में विभक्त है। यह महाकाव्य मूलत: वियोग श्रंगार का ग्रंथ है।

मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं गुप्त जी की प्रथम पुस्तक रंग में भंग है, जिसका प्रकाशन 1980 ई में हुआ। परंतु गुप्त जी को प्रसिद्धि भारत-भारती से मिली जिसकी रचना गुप्त जी ने 1912 ई में की थी। 

भारत भारती ने हिंदी भाषियों में जाति, देश के प्रति गर्व और गौरवपूर्ण भावनाएं प्रबुद्ध कीं, तभी से मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्र कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। गुप्तजी राम भक्त कवि थे रामचरितमानस के बाद राम काव्य का दूसरा ग्रंथ साकेत है जिसकी रचना गुप्त जीने की।

साकेत का नामकरण स्थान के आधार पर रखा गया है। यह अयोध्या का ही दूसरा नाम है। यह महाकाव्य कुल 12 सर्गों में विभक्त है। इस महाकाव्य में कवि ने अपना पूरा ध्यान उर्मिला (लक्ष्मण की पत्नी) पर ही केंद्रित किया है। साकेत के आठवें और नौवें सर्ग अति महत्वपूर्ण हैं। आठवें सर्ग में चित्रकूट में सभा में कैकेयी के अनुताप को तथा नौवें सर्ग में विरहणी उर्मिला की वेदना को दिखाया गया है। साकेत नायिका प्रधान महाकाव्य है, जिसके केंद्र में उर्मिला है। साकेत को लिखने की प्रेरणा गुप्तजी को महावीर प्रसाद द्विवेदी से मिली। इसे लिखने में गुप्त जी को लगभग 15 वर्ष लगे। इसका प्रारंभ 1916 ईस्वी में हुआ और समाप्ति 1932 ईस्वी में हुई।










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