प्रगतिवाद क्या है प्रगतिवाद की विशेषताएं क्या हैं

 प्रगतिवाद( 1936 ई से.......)- 

सन् 1936 ईस्वी में लखनऊ में एक अधिवेशन का आयोजन हुआ जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद जी ने की थी। इस अधिवेशन में प्रेमचंद्र जी ने कहा था कि साहित्य का उद्देश्य दबे, कुचले हुए वर्ग की मुक्ति का होना चाहिए।

भारत में इस 'भारतीय प्रगतिशील संघ' की स्थापना सज्जाद जहीर और मुल्क राज आनंद ने की थी

प्रगतिशील संघ द्वारा ही हिंदी में प्रगतिवाद का आरंभ हुआ।

एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में प्रगतिवाद का इतिहास मोटे तौर पर 1936 ईस्वी से लेकर 1956 ईस्वी तक का इतिहास है।

प्रगतिवाद ना तो सिर्फ मतवाद है और ना ही स्थिर काव्य रूप बल्कि यह तो निरंतर विकास शील साहित्य धारा है।

प्रगतिवादी काव्य का मूल आधार मार्क्सवादी दर्शन है।

प्रगतिवादी आंदोलन की पहचान जीवन और जगत के प्रति नया दृष्टिकोण है। 

प्रगतिवादी काव्य की श्रष्टि वर्ग चेतना प्रधान है। 

यह नया दृष्टिकोण था - 

  1. पुराने रूढ़िवाद जीवन मूल्यों का त्याग।
  2. आध्यात्मिक और रहस्यात्मक अवधारणाओं की जगह पर लोक आधारित अवधारणाओं को मानना।
  3. हर तरफ के शोषण और दमन का विरोध। 
  4. धर्म लिंग भाषा क्षेत्र पर आधारित गैर बराबरी का विरोध, स्वतंत्रता, समानता तथा लोकतंत्र में विश्वास। 
  5. परिवर्तन व प्रगति में विश्वास। 
  6. मेहनत करने वाले लोगों के प्रति गहरी सहानुभूति। 
  7. नारी पर हो रहे अत्याचार का विरोध।
प्रगतिवाद का अर्थ - 
प्रतिवादी काव्य एक सीधी, सहज, तेज, प्रखर, तो कभी व्यंगपूर्ण आक्रामक काव्य शैली का वाचक है।
प्रगतिवादी साहित्य का उद्देश्य है जनता के लिए जनता का चित्रण करना।
प्रगतिवाद आनंदवादी मूल्यों की जगह पर भौतिक उपयोगितावादी मूल्यों में विश्वास करता है।

राजनीति में जो स्थान समाजवाद का है वही स्थान साहित्य में प्रगतिवाद का है।

प्रगतिवादी काव्य की विशेषताएं- 

  1. सामाजिक यथार्थ का चित्रण
  2. शोषण का विरोध
  3. प्रकृति के प्रति लगाव
  4. नारी प्रेम 
  5. राष्ट्रीयता 
  6. सांप्रदायिकता का विरोध 
  7. बोधगम्य भाषा - जनता की भाषा में जनता की बातें 
  8. व्यंग्यात्मकता  
  9. मुक्त छंद का प्रयोग 
  10. मुक्तक काव्य रूप का प्रयोग

  प्रगतिवाद के विकास में अपना योगदान देने वाले कवियों में केदारनाथ सिंह, धूमिल, कुमार विमल, अरुण कमल, राजेश जोशी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं

प्रगतिवाद के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं-

केदारनाथ अग्रवाल - युग की गंगा (1947), नींद के बादल,(1947), फूल नहीं रंग बोलते हैं(1965),  आग का आईना(1970ई), अपूर्व, समय-समय पर,

नागार्जुन -  युगधारा(1956 ई), सतरंगे पंखों वाली(1959 ई), प्यासी पथराई आंखें(1962 ई),  भस्मांकुर, , तुमने कहा था(1980 ई), ऐसे भी हम क्या, ऐसे भी तुम क्या, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, हजार - हजार बाहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, रत्नगर्भ, हरिजन गाथा (कविता)

रांगेय राघव - अजेय खंडहर(1944 ई), मेधावी(1947 ई), राह के दीपक(1947 ई),  पिघलते पत्थर,  पांचाली(1955 ई)

शिवमंगल सिंह सुमन - हिल्लोल, जीवन के गान, ट्रेलर, सृजन, विश्वास बढ़ता ही गया, वाणी की व्यथा, आंखें नहीं भरी, एशिया जाग उठा है

त्रिलोचन - मिट्टी की बारात, धरती, गुलाब और बुलबुल, दिगंत, ताप के ताये हुए दिन, सात शब्द, मैं उस जनपद का कवि हूं।

प्रगतिवादी कवियों का कालक्रम-

नागार्जुन - केदारनाथ अग्रवाल - शिवमंगल सिंह सुमन - त्रिलोचन - रांगेय राघव

इसे ऐसे याद कर सकते हैं ।

(Code - नागा के शिव त्रि रांगे )

महत्वपूर्ण तथ्य -

नागार्जुन का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था।

बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने के बाद नागार्जुन नाम ग्रहण किया।

नागार्जुन मैथिली में यात्री नाम से काव्य लिखते थे।

नागार्जुन दीपक पत्रिका के संपादक भी रहे।

मार्क्सवादी विचारधारा - मार्क्स दुनिया के सभी मनुष्यों की दो जातियां या वर्ग मानते हैं चाहे वह किसी भी जाति या धर्म के हों 1. शोषक वर्ग 2. शोषित वर्ग

शोषक वर्ग में पूंजीपति और जमींदार आदि आते हैं और शोषित वर्ग में निर्धन, मजदूर, श्रमिक वर्ग आते हैं।

लखनऊ में 'भारतीय प्रगतिशील संघ' का पहला अधिवेशन 1936 ई में हुआ जिसकी अध्यक्षता मुंशी प्रेमचंद जी ने की।

दूसरा अधिवेशन 1938 ई में हुआ जिसकी अध्यक्षता रवीन्द्र नाथ टैगोर ने की थी।

प्रगतिवाद के अन्य कविरामेश्वर करुण, रामविलास शर्मा, मन्नूलाल शर्मा, डॉ महेंद्र भटनागर, सुदर्शन चक्र, मलखान सिंह, चन्द्रदेव शर्मा, गणपति चन्द्र भण्डारी, विजय चन्द्र मेघराज, मानसिंह, मनुज देपावत, हरिनारायण विद्रोही आदि।








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