हिंदी साहित्य के अलंकार क्या है ?

 अलंकार किसे कहते है ?

अलंकार का शाब्दिक अर्थ होता है 'आभूषण'।

जिस प्रकार आभूषण शरीर की शोभा या सौन्दर्य को बढ़ाते हैं उसी प्रकार अलंकार काव्य की शोभा या सौन्दर्य को बढ़ाते हैं।

अलंकार की परिभाषा -

आचार्य दण्डी के शब्दों में - 'काव्य शोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते' 

अर्थात् काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।

अलंकार के प्रकार -

अलंकार तीन प्रकार के होते हैं -

  1. शब्दालंकार
  2. अर्थालंकार
  3. उभयालंकार

शब्दालंकार - 

काव्य में जहां शब्दों के द्वारा काव्य-सौन्दर्य में वृद्धि होती है वहाँ शब्दालंकार होता है।

शब्दों से काव्य सौन्दर्य में वृद्धि से मतलब है जैसे शब्दों की पुनरावृत्ति(बार-बार आना) या वर्णों की पुनरावृत्ति।

जब किसी काव्य की पंक्तियों में ऐसा होता है तो वह पंक्तियाँ बहुत रोचक लगतीं हैं और पढ़ने में बहुत अच्छा लगता है।

जैसे-

चारू चंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में

इस पंक्ति में च वर्ण की आवृत्ति हो रही है जिससे इस पंक्ति की शोभा बढ़ गई है। 

तो यहाँ शब्दालंकार है।

शब्दालंकार के प्रकार -

  • अनुप्रास 
  • यमक
  • श्लेष
  • वक्रोक्ति
  • वीप्सा
  • पुनरुक्ति

अनुप्रास अलंकार - 

अनुप्रास अलंकार में व्यंजन वर्णों की आवृत्ति होती है।आवृत्ति का मतलब होता है बार-बार आना। 

जब किसी काव्य में वर्णों की आवृत्ति होती है वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।

तरनि,तनुजा,तट,तमाल,तरुवर बहु छाए।

प्रस्तुत पंक्ति में त वर्ण की आवृत्ति हुई है।

कोमल कलाप कोकिल कमनीय कूकती है।

क वर्ण की आवृत्ति

मुदित महीपति मंदिर आए।

म वर्ण की आवृत्ति

अनुप्रास अलंकार पाँच प्रकार के होते हैं - 

छेकानुप्रास -

अनेक व्यंजनों की एक बार, एक ही तरह से क्रमशः आवृत्ति होती है।

बंदऊँ गुरू पद पदुम परागा।सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।

इनका पंक्तियों में ध्यान दें-

पद पदुम में पद और सुरुचि सरस में सर की एक समान आवृत्ति हुई है।

पद में प के बाद द है और पदुम में भी प के बाद द है 

इसी तरह सुरुचि में स के बाद र और सरस में भी स के बाद र है, तो यहाँ पर क्रम की आवृत्ति हुई है।

वृत्त्यनुप्रास -

इसमें अनेक व्यंजनों की अनेक बार एक समान और एक समान क्रम में आवृत्ति होती है।

कलावति केलिवति कलिन्दजा

इस पंक्ति में कल की एक समान आवृत्ति हुई है। कल कल कल आया है तीन बार।

और क और ल की आवृत्ति हुई है मतलब हर बार क के बाद ल ही आया है इस प्रकार क्रम भी एक समान है।

लाटानुप्रास -

तात्पर्य अलग होने से शब्द व अर्थ दोनों की पुनरुक्ति।

पुनरुक्ति का मतलब होता है दोबारा ।

पुनः + उक्ति = पुनरुक्ति

किसी शब्द को दोबारा कहना।

लड़का तो , लड़का ही है 

लड़का दो बार आया है तो शब्द की पुनरुक्ति।

अब यहाँ पर पहले वाले लड़का का अर्थ है सामान्य लड़का जैसे सभी होते हैं।

जबकि दूसरे वाले लड़का का अर्थ है सर्वगुण संपन्न लड़का।

तो यहाँ पर अर्थ की पुनरुक्ति हुई है।

अन्त्यानुप्रास-

जहाँ पर अंत में तुक मिलती हो वहाँ पर अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है।

उदाहरण-

लगा दी किसने आकर आग

कहाँ था तू संशय के नाग?

श्रुत्यानुप्रास-

जहाँ पर कानों को मधुर लगने वाले वर्णों की आवृत्ति होती है वहाँ पर श्रुत्यानुप्रास अलंकार होता है।

उदाहरण-

दिनांक था, थे दीनानाथ डूबते

साधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे


यमक अलंकार -

शब्दों की आवृत्ति।

जहाँ एक ही शब्द बार-बार आए किन्तु प्रत्येक बार उसका अर्थ अलग-अलग हो तो वहाँ पर यमक अलंकार होता है।

कनक कनक ते सौगुनी , मादकता अधिकाय।

वा खाए बौराय जग, या पाए बौराय।।(बिहारी)

यहाँ पर कनक शब्द दो बार आया है।

पहले कनक का अर्थ है - सोना

दूसरे कनक का अर्थ है - धतूरा

2. काली घटा का घमंड घटा

पहली घटा का अर्थ है- बादल

दूसरे घटा का अर्थ है - कम होना।

तू मोहन के उर बसी है उरबसी समान।

उर बसी - उर (हृदय) में बसी

उरबसी - उर्वशी (एक अप्सरा)

श्लेष अलंकार -

जहाँ एक ही शब्द के अर्थ अलग-अलग हों वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है।

श्लेष का अर्थ है चिपकना मतलब एक शब्द से अनेक अर्थ चिपके हों या अनेक अर्थ हों।

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरै, मोती मानुस चून।।(रहीम)

नीचे वाली पंक्ति में श्लेष अलंकार है। इस पंक्ति में पानी शब्द एक ही बार आया है और यहाँ पर पानी के तीन अर्थ हैं - मोती के संदर्भ में चमक

मनुष्य के संदर्भ में सम्मान

चून (चूना) के संदर्भ में जल।

मंगन को देखि पट देत बार-बार हैं।

उपर्युक्त पंक्ति में पट के दो अर्थ हैं- पहला वस्त्र और दूसरा दरवाजा। इसी प्रकार देत के भी दो अर्थ हैं - पहला देना और दूसरा बंद करना।

वक्रोक्ति अलंकार -

प्रत्यक्ष अर्थ के अतिरिक्त भिन्न अर्थ का होना।

वक्ता द्वारा बोले गए शब्दों का प्रत्यक्ष अर्थ से अलग अर्थ निकल कर आना।

वक्रोक्ति अलंकार के दो प्रकार के हैं -

श्लेषमूला वक्रोक्ति - 

श्लेष के द्वारा वक्रोक्ति।

जहाँ पर श्लेष के कारण वक्ता द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकलता है तो वहां पर श्लेषमूला वक्रोक्ति अलंकार होता है।  

एक शब्द के दो अलग अर्थ हों पहला अर्थ प्रत्यक्ष अर्थ से अलग हो।

एक कबूतर देख हाथ में पूछा कहाँ अपर है ?

उसने कहा अपर कैसा ? वह उड़ गया सपर है ।।(गुरूभक्त सिंह) 

यहाँ पहले जहाँगीर ने दूसरे कबूतर के बारे में पूछने के लिए 'अपर' (दूसरा) शब्द का प्रयोग किया है, जबकि उत्तरार्ध में नूरजहाँ ने 'अपर' का 'बिना पर (पंख) वाला' अर्थ का उत्तर दिया है।

काकुमूला वक्रोक्ति -

काकु का अर्थ होता है ध्वनि।

ध्वनि-विकार या आवाज में परिवर्तन के कारण वक्ता द्वारा बोले गए शब्दों का अलग अर्थ निकलता है तो वहां पर वक्रोक्ति अलंकार होता है।         वक्रोक्ति मतलब प्रत्यक्ष अर्थ से अलग अर्थ प्रकट होना।

जैसे-

आप जाइए तो। = आप जाइए।

आप जाइए तो ? = आप नहीं जाइए।

वीप्सा अलंकार -

वीप्सा का मतलब होता है दुहराना।

मन के भावों को प्रकट करने के लिए या उन भावों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त करने के लिए जहाँ पर किसी शब्द को दोहराया जाता है या दो बार कहा जाता है तो वहां पर वीप्सा अलंकार होता है।

जैसे -

छिः, छिः    राम,राम     चुप,चुप      रुको, रुको।

जहाँ ऐसे शब्द आएँ वहाँ वीप्सा अलंकार होता है।


पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार-

पुनरुक्ति दो शब्दों से मिलकर बना है-

पुनः+उक्ति = पुनरुक्ति

जहाँ पर कोई शब्द दो बार दोहराया जाता है तो वहां पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।

काव्य में जहां पर शब्दों की पुनरावृत्ति होती है वहाँ पर पुनरुक्ति अलंकार होता है।

पुनरुक्ति अलंकार में शब्दों की क्रमशः आवृत्ति होती है अर्थ अलग नहीं होता है, अर्थ एक ही होता है।

अब यहाँ पर आपको ध्यान रखना है कि यमक अलंकार में भी शब्दों की पुनरावृत्ति होती है पर अर्थ अलग-अलग होता है किन्तु पुनरुक्ति अलंकार में अर्थ अलग नहीं होता है।

उदाहरण-

ललित-ललित काले घुंघराले।

जगमग-जगमग ज्योति जले।


मानवीकरण अलंकार -

जब कविता में प्रकृति पर मानवीय क्रियाकलापों का आरोप किया जाता है तो वहां मानवीकरण अलंकार होता है। इसे इस प्रकार भी परिभाषित करते हैं - जब अचेतन प्रकृति में कवि चेतना आरोपित करता है तब वहां मानवीय अलंकार होता है।

उदाहरण -

"धीरे-धरे हिम आच्छादन 

हटने लगा धरातल से 

लगी वनस्पतियां अलसाईं

मुख धोतीं शीतल जल से"



अर्थालंकार-

अर्थालंकार किसे कहते हैं?

काव्य में जहाँ अर्थ के द्वारा चमत्कार उत्पन्न होता है वहाँ अर्थालंकार होता है।
अर्थ के द्वारा जहाँ काव्य की शोभा में वृद्धि होती है वहाँ अर्थालंकार होता है।

अर्थालंकार के प्रकार-

उपमा अलंकार-

भिन्न पदार्थों का सादृश्य प्रतिपादन ।

अर्थात् जब किन्ही दो व्यक्तियों या वस्तुओं के गुण, आकार या स्वभाव में समानता होने के कारण उनकी तुलना की जाती है तो वहाँ पर उपमा अलंकार होता है।

या जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना सादृश्यता के कारण किसी दूसरे व्यक्ति या वस्तु से की जाती है तो वहाँ पर उपमा अलंकार होता है।

उपमा अलंकार के चार अंग होते हैं-

  1. उपमेय
  2. उपमान
  3. समान धर्म
  4. वाचक शब्द
उपमेय-

जिसकी उपमा दी जाती है उसे उपमेय कहते हैं 
जो प्रस्तुत होता है अर्थात जो सामने है और जिसकी तुलना की जा रही है वह उपमेय कहलाता है।

उपमान -

जिससे तुलना की जाए उसे उपमान कहते हैं। जो अप्रस्तुत है मतलब वहाँ उपस्थित नहीं है और उसी से तुलना की जाए उसे उपमान कहते हैं।

समान धर्म-
उपमेय व उपमान दोनों में जो समानता का गुण पाया जाता है  उसे समान धर्म कहते हैं।
जिन गुणों के कारण दोनों में समानता है वही गुण समान धर्म हैं।

वाचक शब्द-
उपमेय व उपमान की समानता को बताने वाले शब्द वाचक शब्द कहलाते हैं।
वाचक शब्द- सी,सम,समान,सादृश्य,ऐसा,जैसा,ज्यों ।
उदाहरण-
मुख चन्द्र-सा सुंदर है।
मुख- उपमेय- जिसकी तुलना की जा रही है।
चन्द्र- उपमान- जिससे तुलना की जा रही है।
सुंदरता- समान धर्म- दोनों ही सुंदर हैं।
सा - वाचक शब्द - सा मतलब समान, समानता बता रहा है।

उपमा अलंकार दो प्रकार के होते हैं-
  1. पूर्णोपमा
  2. लुप्तोपमा
पुर्णोपमा -
जहाँ उपमा के चारों अंग उपस्थित हों वहाँ पर पूर्णोपमा अलंकार होता है।
जैसे- 
मुख चन्द्र-सा सुंदर है।

मुख- उपमेय
चन्द्र- उपमान
सुंदरता- समान धर्म
सा - वाचक शब्द 

लुप्तोपमा- 
जहाँ पर उपमा के एक,दो या तीन अंग लुप्त (गायब) हों वहाँ पर लुप्तोपमा अलंकार होता है।
जैसे-
मुख चन्द्र-सा है।

मुख- उपमेय
चन्द्र- उपमान
सा - वाचक शब्द
समान धर्म 'सुन्दरता' का लोप।
उपमा अलंकार के अन्य उदाहरण-
1. वह दीपशिखा - सी शांत भाव में लीन।
2. हरिपद कोमल कमल-से
3. बरस रहा है रवि अनल, भूतल तवा-सा जल रहा।


प्रतीप अलंकार -

प्रतीप अलंकार उपमा अलंकार से विपरीत होता है। इसमें  प्रसिद्ध उपमान को उपमेय बना दिया जाता है।
जैसे -
मुख सा चंद्र है।
यहाँ पर चंद्रमा को ही नायिका के मुख के समान बताया है। अर्थात यहाँ पर चंद्रमा उपमेय (जिसकी तुलना की जा रही है।) और नायिका का मुख उपमान(जिससे तुलना की जा रही है।)है।
चंद्रमा प्रसिद्ध उपमेय है जिससे दूसरी वस्तुओं की तुलना की जाती है पर यहाँ पर चंद्रमा को ही उपमान बना दिया है।
आशा है आप समझ गए होंगे।

उपमेयोपमा -

इसमें प्रतीप और उपमा दोनों का संयोग होता है।
प्रतीप + उपमा = उपमेयोपमा
इसमें पहले प्रसिद्ध उपमेय को उपमान बना दिया जाता है और फिर उपमेय को उपमेय और उपमान को उपमान।
या यूँ कहें कि कि उपमेय और उपमान में समानता दर्शाने का प्रयास किया जाता है।
जैसे -
मुख-सा चंद्र है और चंद्र-सा मुख है।
अब यहाँ पर दोनों में समानता बता रहे हैं कि नायिका के मुख जैसा चंद्रमा है और नायिका का मुख चंद्रमा के जैसा है।


अनन्वय अलंकार -

एक ही वस्तु को उपमेय व उपमान दोनों कहना।अर्थात जब उपमेय के समान कोई उपमान नहीं होता है और कहा जाता है कि वह उसी के समान है तब वहाँ पर अनन्वय अलंकार होता है। मतलब यहाँ पर उपमेय को इतना प्रसिद्ध बताया जाता है कि उसके समान कोई दूसरा होता ही नहीं जिससे उसकी तुलना की जा सके।
जैसे -
मुख मुख ही सा है।
राम राम ही से हैं।
सिया सी सिया।


संदेह अलंकार -

जहाँ पर उपमेय में उपमान के होने का संदेह होता है वहाँ पर संदेह अलंकार होता है।
जैसे -
यह मुख है या चंद्र है।
यहाँ पर नायिका के मुख को इतना सुंदर बताया गया है कि मुख देख कर नायक को यह संदेह हो रहा है कि यह मुख है या चंद्रमा है।
अतः यहाँ पर संदेह अलंकार है।


उत्प्रेक्षा अलंकार -

जहाँ पर उपमेय में उपमान के होने की संभावना व्यक्त की जाती है तो वहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
बोधक शब्द - जनु, जानो ,जनहु, मनु, मानो, मनहु।
यह शब्द बोध कराते हैं कि यहाँ पर उत्प्रेक्षा अलंकार है।
जैसे - 
मुख मानो चंद्र है।
मानो बोधक शब्द है।
यहाँ पर मुख में चंद्रमा के होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। मुख इतना सुंदर है कि लगता है जैसे यह मुख नहीं है चंद्रमा है।
अन्य उदाहरण
उस काल मारे क्रोध के, तन कांपने उसका लगा,
मानो हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा।

सुनत जोग लगत है ऐसो ज्यों करुई ककरी।

सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात।
मनो नीलमनि सैल पर, आतप परयो प्रभात। 


रूपक अलंकार -

उपमेय में उपमान का आरोप होता है वहाँ रूपक अलंकार होता है। यह निषेधरहित होता है अर्थात नकारात्मक शब्द नहीं होते हैं।
जैसे -
मुख चन्द्र है।
प्रस्तुत पंक्ति में यह कहा गया है कि यह जो नायिका का मुख है वह चंद्रमा है। अर्थात उपमेय और उपमान दोनों में इतनी समानता दिखाई देती है कि नायक मुख में चंद्रमा के होने का आरोप व्यक्त कर रहा है।
अन्य उदाहरण
विकसे संत-सरोज सब, हरसै लोचन-भृंग
उपर्युक्त पंक्ति में संतजनों को कमल और आँखों को भ्रमर (भंवरा) बताकर एकरूपता स्थापित की गई है।
चरण-कमल बंदौ हरिराई।
पायो जी मैंने राम-रतन-धन पायो।
एक राम-घनश्याम चातक-तुलसीदास


अपन्हुति अलंकार -

यह रूपक अलंकार के समान ही होता है इसमें भी उपमेय में उपमान के होने का आरोप होता है। पर यह निषेधसहित होता है अर्थात नकारात्मक शब्द होता है।
उदाहरण -
यह मुख नहीं, चंद्र है।
प्रस्तुत पंक्ति में नायिका के मुख को चंद्रमा के समान इतना सुंदर बताया गया है कि नायक मुख में चंद्रमा के होने का आरोप व्यक्त कर रहा है। अर्थात यह मुख नहीं है अपितु यह तो चंद्रमा ही है।


अतिशयोक्ति अलंकार -

अतिशयोक्ति = अतिशय+उक्ति।
अर्थात किसी बात को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कहना जो कि लोक सीमा से बाहर हो जाए।
काव्य में जहाँ किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थिति आदि का वर्णन अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर किया जाता है, वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण- 
देख लो साकेत नगरी है यही, स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।
उपर्युक्त पंक्तियों में साकेत नगरी की इमारतों की ऊँचाई का वर्णन अत्यधिक बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है और उसे स्वर्ग से मिलता हुआ बताया गया है। अतः यहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार है।
अन्य उदाहरण
हनुमान की पूँछ में लगन न पाई आग।
लंका सारी जल गई, गए निशाचर भाग।।
यहाँ हनुमान की पूँछ में आग लगने से पहले ही लंका नगरी का जलना बताया गया है। अतः यहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार है।
राणा की पुतली फिरी नहीं, चेतक झटपट मुड़ जाता था।



उल्लेख अलंकार -
काव्य में जहाँ विषय में भेद होने के कारण एक ही वस्तु का अनेक प्रकार से वर्णन या उल्लेख होता है वहाँ पर उल्लेख अलंकार होता है।
उदाहरण- 
जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरित देखी तिन तैसी।
देखहिं भूप महा रनधीरा, मनहु वीर रस धरे सरीरा।
डरे कुटिल नृप प्रभुहिं निहारी, मनहु भयानक मूरति भारी।
यहाँ पर तुलसीदास जी ने रामचंद्र जी के रूप का वर्णन अनेक प्रकार से किया है। राजाओं को श्रीराम एक महान योद्धा के रूप में देख रहे हैं और वहीं जो कुटिल राजा हैं उनको श्री राम जी का भयानक रूप दिखाई दे रहा है।



स्मरण अलंकार -
काव्य में जहाँ किसी वस्तु को प्रत्यक्ष देख कर पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण या याद आ जाए वहाँ पर स्मरण अलंकार होता है।
उदाहरण -
चंद्रमा को देख कर मुख याद आता है।
यहाँ पर चंद्रमा या मुख में समानता हो या न हो परंतु उसे देख कर पहले जिस मुख की अनुभूति हुई थी वह याद आ रहा है।


भ्रांतिमान अलंकार -

जहाँ पर उपमेय व उपमान में समानता होने के कारण एक वस्तु को दूसरी वस्तु मान लिया जाए वहाँ पर भ्रांतिमान अलंकार होता है।
उदाहरण -
फिरत घरन नूतन पथिक, चले चकित चित भागि।
फूल्यो देखि पलाश वन, समुहें समुझि दावागि।।

प्रस्तुत पंक्तियों में पथिक मतलब राहगीर पलाश वन को फूला हुआ देखकर उसे दावाग्नि (जंगल की आग) समझकर डर जाते हैं और घर वापस लौट आते हैं।


दृष्टांत अलंकार- उपमेय-उपमान में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव।
अर्थात उपमेय और उपमान में साम्य भाव दर्शाना।
काव्य में जहां पर आशय एक ही होता है पर दो अलग-अलग अभिव्यक्ति दी जाए वहाँ पर दृष्टांत अलंकार होता है।
उदाहरण -
उसका मुख निसर्ग सुंदर है, चन्द्रमा को प्रसाधन की क्या आवश्यकता?
मूल आशय - सुंदर वस्तु का प्राकृतिक रूप से सुंदर लगना।
अभिव्यक्ति -1 . मुख प्राकृतिक रूप से सुंदर है।
2.चंद्रमा भी प्राकृतिक रूप से सुंदर होता है उसे श्रंगार करने  की आवश्यकता नहीं है।
इस प्रकार आशय एक है और उस आशय को दो प्रकार से अभिव्यक्त किया है।


 व्यतिरेक अलंकार- 
उपमान की अपेक्षा उपमेय का व्यतिरेक मतलब उत्कर्ष वर्णन।
अर्थात का में जहाँ उपमान की अपेक्षा उपमेय का उत्कर्ष वर्णन किया जाए वहाँ पर व्यतिरेक अलंकार होता है।
उदाहरण -
चन्द्र सकलंक, मुख निष्कलंक ; दोनों में समता कैसी ?
यहाँ पर चन्द्र उपमान है और मुख उपमेय।
इस पंक्ति में नायिका के मुख की सुंदरता का इतना उत्कर्ष वर्णन किया है कि उसके आगे चन्द्र कुछ नहीं है। इस पंक्ति के अनुसार चंद्रमा में तो दाग है अर्थात चंद्रमा की सुंदरता में कमी है पर नायिका के मुख की सुंदरता में कोई कमी नहीं है।


अन्योक्ति अलंकार -

काव्य में जहां अप्रस्तुत या प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत का वर्णन होता है वहां पर अन्योक्ति अलंकार होता है।
अन्योक्ति – अन्य + उक्ति { अन्य = अन्य (दुसरे) के लिए।, उक्ति = कथन। अर्थात अन्य (दुसरे) के लिए कथन।

जहां कोई बात सीधी ना कह कर किसी का सहारा लेकर कहीं जाए अर्थात अप्रस्तुत(जो सामने नहीं है) का सहारा लेकर प्रस्तुत(जो सामने है) के बारे में कोई बात कही जाए।

माली आवत देख कर कलियन करि पुकार ।
फूले फूले चुन लिए काल हमारी बार ।।




विरोधाभास अलंकार -

काव्य में जहां विरोध ना होने पर भी विरोध का आभास होता है, वहां विरोधाभास अलंकार होता है।

याअनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोय। 
ज्यों ज्यों बूडै स्याम रंग, त्यों त्यों उज्ज्वल होय।।” 

यहाँ पर श्याम (काला) रंग में डूबने से उज्ज्वल होने का वर्णन है अतः यहाँ विरोधाभास अलंकार है।




विशेषोक्ति अलंकार -
काव्य में जब कारण के होते हुए भी कार्य नहीं होता है वहां विशेषोक्ति अलंकार होता है।

मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं बिरंचि सम।

नैनों से सदैव जल की वर्षा होती रहती है तब भी प्यास नहीं बुझती।


विभावना अलंकार -
काबे में जब कारण ना होने पर भी कार्य का होना बताया जाता है, वहां विभावना अलंकार होता है।

बिनु पद चलै सुनै बिनू काना।
कर बिनू करम करै बिधि नाना।।



उदाहरण अलंकार - 

जहाँ एक बात कहकर उसके उदाहरण के रूप में दूसरी बात कही जाए। और दोनों को उपमावाचक शब्द- ‘जैसे’, ‘ज्यों’, ‘मिस’ आदि से जोड़ दिया जाए, वहाँ उदाहरण अलंकार होता है। 

सबै सहायक सबल के, कोई न निबल सहाय ।पवन जगावत आग ज्यों, दीपहिं देत बुझाय




जैसे- नीकी पै फीकी लगै, बिन अवसर की बात ।
जैसे बरनत युद्ध में, रस श्रृंगार न सुहात ।।

प्रस्तुत पद में ‘अच्छी बात का भी बिना अवसर के फीका लगना’ की पुष्टि ‘युद्ध में श्रृंगार रस’ की बात कहकर की गई है तथा दोनों को जैसे’ उपमा वाचक शब्द से जोड़ दिया गया है। अतः उदाहरण अलंकार है।



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